पृथ्वी के कष्टों का निवारण करने के लिए अवतार-पुरूष जन्म लिया करते हैं,
यह मान्यता भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीन समय से चली आ रही है। इसलिए 1915
में भारत के लोगों ने सहज ही यह मान लिया कि भगवान ने उनका दुरूख समझ लिया
है और उस दु:ख को दूर करने के लिए व भारतीय जीवन में एक नया संतुलन लाने के
लिए महात्मा गाँधी को भेजा गया है। गाँधीजी के प्रयासों से भारतीय सभ्यता
की दास्तान का दु:ख बहुत कुछ कट ही गया, लेकिन भारतीय जीवन में कोई संतुलन
नहीं आ पाया। गाँधीजी 1948 के बाद जीवित रहते तो भी इस नए संतुलन के लिए तो
कुछ और ही प्रयत्न करने पड़ते।
जो काम महात्मा गाँधी पूरा नहीं कर
पाए उसे पूरा करने के प्रयास हमें आगे-पीछे तो आरंभ करने ही पड़ेंगे। आधुनिक
विश्व में भारतीय जीवन के लिए भारतीय मानव व काल के अनुरूप कोई नया संतुलन
ढूँढें बिना तो इस देश का बोझ हल्का नहीं हो पाएगा और उस नए ठोस धरातल को
ढूँढने का मार्ग वही है जो महात्मा गांधी का था। इस देश के साधारणजन के
मानस में पैठकर, उसके चित्त व काल को समझकर ही, इस देश के बारे में कुछ
सोचा जा सकता है।
पर शायद हमें यह आभास भी है कि भारतीय चित्त वैसा
साफ-सपाट नहीं है जैसा मानकर हम चलना चाहते हैं। वास्तव में तो वह सब
विषयों पर सब प्रकार के विचारों से अटा पडा है और वे विचार कोई नए नहीं
हैं। वे सब पुराने ही है। शायद ऋग्वेद के समय से वे चले आ रहे है या शायद
गौतम बुद्ध के समय से कुछ विचार उपजे होंगे या फिर महावीर के समय से। पर जो
भी ये विचार है जहां से भी वे आए हैं वे भारतीय मानस में बहुत गहरे बैठे
हुए हैं। और शायद हम यह बात जानते हैं। लेकिन हम इस वास्तविकता को समझना
नहीं चाहते। इसे किसी तरह नकार कर भारतीय मानस व चित्त की सभी वृत्तियों से
आंखे मूंदकर अपने लिए कोई एक नई दुनिया हम गढ़ लेना चाहते हैं।
इसलिए
अपने मानस को समझने की सभी कोशिशें हमें बेकार लगती हैं।
अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के भारत के इतिहास का मेरा अध्ययन भी भारतीय मानस
को समझने का एक प्रयास ही था। उस अध्ययन से अंग्रेजों के आने से पहले के
भारतीय राज-समाज की भारत के लोगों के सहज तौर-तरीकों की एक समझ तो बनी।
समाज की जो भौतिक व्यवस्थाएं होती है, विभिन्न तकनीकें होती है, रोजमर्रा
का काम चलाने के जो तरीके होते हैं, उनका एक प्रारूप-सा तो बना पर समाज के
अंतर्मन की उसके मानस की चित्त की कोई ठीक पकड़ उस काम से नहीं बन पाई। मानस
को पकड़ने का, चित्त को समझने का मार्ग शायद अलग होता है।
हममें से
कुछ लोग शायद मानते हों कि वे स्वयं भारतीय मानस, चित्त व काल की सीमाओं से
सर्वथा मुक्त हो चुके हैं। अपनी भारतीयता को लाँघकर वे पश्चिमी आधुनिकता
या शायद किसी प्रकार की आदर्श मानवता के साथ एकात्म हो गए है। ऐसे कोई लोग
है तो उनके लिए बीसवीं सदी की दृष्टि से कलियुग को समझना और भारतीय कलियुग
को पश्चिम की बीसवीं सदी के रूप में ढालने के उपायों पर विचार करना संभव
होता होगा, पर ऐसा अक्सर हुआ नहीं करता। अपने स्वाभाविक देश-काल की
सीमाओं-मर्यादाओं से निकालकर किसी और के युग में प्रवेश कर जाना असाधारण
लोगों के बस की भी बात नहीं होती। जवाहरलाल नेहरू जैसों से भी नहीं हो पाया
होगा। अपनी सहज भारतीयता से पूरी तरह मुक्त वे भी नहीं हो पाए होंगें।
महात्मा गाँधी के कहने के अनुसार भारत के लोगों में जो एक तर्कातीत और
विचित्र-सा भाव है, उस विचित्र तर्कातीत भाव का शिकार होने से जवाहरलाल
नेहरू भी नहीं बच पाए होगें फिर बाकी लोगों की तो बात ही क्या। वे तो
भारतीय मानस की मर्यादाओं से बहुत दूर जा ही नहीं पाते होंगे।
भारत
के बड़े लोगों ने आधुनिकता का एक बाहरी आवरण सा जरूर ओढ़ रखा है। पश्चिम के
कुछ संस्कार भी शायद उनमें आए है। पर चित्त के स्तर पर वे अपने को भारतीयता
से अलग कर पाए हो, ऐसा तो नहीं लगता। हां, हो सकता है कि पश्चिमी सभ्यता
के साथ अपने लंबे और घनिष्ठ संबंध के चलते कुछ दस-बीस-पचास हजार, या शायद
लाखों लोग, भारतीयता से बिल्कुल दूर हट गए हों। पर यह देश तो दस-बीस-पचास
हजार या लाख लोगों का नहीं है। यह तो 125 करोड़ अस्सी करोड़ लोगों की कथा है।
भारतीयता की मर्यादाओं से मुक्त हुए ये लाखों आदमी जाना चाहेंगें तो यहाँ
से चले ही जाएँगे। देश अपनी अस्मिता के हिसाब से अपने मानस, चित्त व काल के
अनुरूप चलने लगेगा तो हो सकता है इनमें से भी बहुतेरे फिर अपने सहज
चित्त-मानस में लौट आएँ। जिनका भारतीयता से नाता पूरा टूट चुका है, वे तो
बाहर कही भी जाकर बस सकते हैं। जापान वाले जगह देंगे तो वहाँ जाकर रहने
लगेंगे। जर्मनी में जगह हुई जर्मनी में रह लेंगे। रूस में कोई सुंदर जगह
मिली तो वहाँ चले जाएंगे। अमेरिका में तो वे अब भी जाते ही हैं। दो-चार लाख
भारतीय अमेरिका जाकर बसे ही हैं और उनमें बड़े-बड़े इंजीनियर, डॉक्टर,
दार्शनिक, साहित्यकार, विज्ञानविद् और अन्य प्रकार के विद्वान भी शामिल है।
पर इन लोगों का जाना कोई बहुत मुसीबत की बात नहीं है। समस्या उन लोगों की
नहीं जो भारतीय चित्त व काल से टूटकर अलग जा बसे है। समस्या तो उन करोड़ों
लोगों की है जो अपने स्वाभाविक मानस व चित्त के साथ जुड़कर अपने सहज काल में
रह रहे है। इन लोगों के बल पर देश को कुछ बनाना है तो हमें उस सहज चित्त,
मानस व काल को समझना पडेगा।
भारतीय वर्तमान के धरातल से पश्चिम की
बीसवीं सदी का क्या रूप दिखता है, उस बीसवीं सदी और अपने कलियुग में कैसा
और क्या संपर्क हो सकता है, इस सब पर विचार करना पडेगा। यह तभी हो सकता है
जब हम अपने चित्त व काल को, अपनी कल्पनाओं व प्राथमिकताओं को और अपने
सोचने-समझने व जीने के तौर-तरीकों को ठीक से समझ लेंगे
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शनिवार, 24 अक्टूबर 2020
आलेख - यह बीसवीं-इक्कीसवीं सदी है किसकी - लेखक धर्मपाल
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